शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

अफीम की खेती पर संकट

शिरीष खरे 

मध्य प्रदेश के मंदसौर एवं नीमच जिले में अफीम की खेती करने वाले किसान इन दिनों अपनी पारंपरिक खेती के भविष्य को लेकर चिंतित हो गए हैंवजह यह है कि तुर्की से पोस्ता दाने का आयात करने के भारत सरकार के एक निर्णय ने यहां अफीम उत्पादकों को आर्थिक संकट में डाल दिया हैलेकिन देश में पोस्ता दाना की मांग को पूरा करने के लिए सरकार इस आयात को जरूरी मानरही है. भारत सरकार के इस निर्णय के खिलाफ यहां के अफीम उत्पादक किसान अब आंदोलन करने की तैयारी कर रहे हैं.


जैसा कि जगजाहिर है कि मध्य प्रदेश के मालवा-निमाड़ क्षेत्र के नीमच और मंदसौर जिले में आजादी के पहले से ही काले सोनेयानी अफीम की खेती  होती हैयहां से उत्पादित अफीम को पश्चिमी देशों के दवा कंपनियों को बेचा जाता हैअफीम के पौधे से उसके बीज को निकालकर पोस्ता दाना बनाया जाता हैजैसा कि नीमच के कनावती गांव के अफीम उत्पादक किसान राजेश पाटीदार बताते हैं कि दिनोंदिन अफीम की खेती की लागत बढ़ रही है. मजदूरों को ज्यादा मजदूरी देनी पड़ रही हैअफीम की सरकारी खरीद और डोडा चूरा सरकार द्वारा तय ठेकेदारों को बेचने के बाद किसानों के पास सिर्फ पोस्ता दाना ही बचता हैइसे अफीम उत्पादक खुले बाजार में बेचकर खासा मुनाफा कमाते रहे हैं. लेकिन तुर्की से पोस्ता दाना आयात होने के सरकारी निर्णय के बाद यह खुले बाजार में भारी मात्रा में उपलब्ध हैलिहाजा इसका बाजार मूल्य भी कम हो गया है.

इस बारे में भारतीय किसान संघ के नीमच जिला अध्यक्ष राधेश्याम दंगर कहते हैं, ‘सरकार का निर्णय देश के किसानों की हितों की अनदेखी करने वाला हैसरकार की गलत नीतियों के कारण अफीम बुआई का कुल रकबा पहले से कम होता जा रहा है. जाहिर है कि सरकार के इस निर्णय से अफीम उत्पादक किसान अफीम की बुआई को लेकर हतोत्साहिति होंगे और पोस्ता दाना का उत्पादन भी कम होगा.


दूसरी तरफकिसानों की इस चिंता एवं आयात की स्थिति पर सेंट्रल ब्यूरो ऑफ नारकोटिक्सग्वालियर के आयुक्त विजय काल्सी कहते हैं, ‘भारत में 20 से 25 हजार मीट्रिक टन पोस्ता दाना की मांग हैजबकि पूरे देश भर के अफीम उत्पादको किसानों से कुल 4हजार मीट्रिक टन ही पोस्ता दाना उत्पादन हो पाता हैसीधी बात है कि यदि देश में पोस्ता दाने का उत्पादन बढ़ाना है तो अफीम की खेती का रकबा बढ़ाना होगालेकिन सरकार नहीं चाहती कि जरूरत और मांग से ज्यादा अफीम का उत्पादन होइसलिए भी सरकार ने तुर्की से पोस्ता दाने का आयात करना मुनासिब समझा है.’ उन्होंने बताया कि बिना अफीम के पोस्ता दाने का उत्पादन किए जाने के लिए शोध चल रहा हैउन्हें विश्वास है कि भविष्य में बिना अफीम वाले पोस्ता दाने की खेती का सपना साकार हो सकता हैपर कितना समय लगेगाइसे अभी कह पाना संभव नहीं है.

भारतीय किसान मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष बंशीलाल गुर्जर पोस्ता दाने के आयात में किसानों के हितों की अनदेखी की बात पर जोर देते हुए कहते हैं, ‘तुर्की में पोस्ता दाने का उतना उत्पादन नहीं होता जितना आयात करने लिए नारकोटिक्स विभाग में तुर्की से पंजीयन हुआ हैऐसी स्थिति में अफगानिस्तान में गैरकानूनी तरीके से की जा रही अफीम की खेती से उपजे पोस्ता दाना को तस्कर तुर्की के रास्ते भारत को आयात कर रहे हैंआशंका यह है कि यह पैसा उन गुटों तक तो नहीं पहुंच रहा है जो आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त हैंइस बात को हम केंद्र सरकार के सामने उठाएंगे और राज्य सरकार से भी हम कहने वाले हैं कि वह केंद्र से बात कर पोस्ता दाना के आयात पर रोक लगवाए.

गौर करें तो इलाहाबाद के आयुर्वेद सेवाश्रम कल्याण समिति ने बीते साल इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी. इसमें कोर्ट ने 29 नवंबर को दिए फैसले में कहा था कि कानूनी तरीके से उत्पादित पोस्ता दाना को ही आयात किया जा सकता हैइस फैसले के बाद जब कुछ अफीम उत्पादक किसानों ने तुर्की में उत्पादित पोस्ता दाने के संबंध में केंद्र सरकार से जानकारी मांगी तो तुर्की सरकार ने दिसंबर2013 को बताया कि सिर्फ हजार मीट्रिक टन पोस्ता दाना ही निर्यात के लिए उनके यहां उपलब्ध हैइलाहाबाद के वकील शिशिर प्रकाश ने इस संबंध में जो पत्र विभिन्न मंत्रालयों को लिखा है उसमें जिक्र किया है कि नारकोटिक्स विभाग में तुर्की से विभिन्न पंजीयन के तहत लगभग 70 हजार मीट्रिक टन आयात के लिए पंजीयन हुआ हैजाहिर है तुर्की सरकार ने पोस्ता दाना निर्यात की जो जानकारी दी है यह मात्रा उससे बीस गुना अधिक है. ऐसे में पोस्ता दाने की तस्करी की आशंका को और अधिक बल मिल रहा है. लेकिन मध्य प्रदेश के पश्चिमी अंचल के इन अफीम उत्पादक किसानों का संकट कहीं गंभीर है. आखिर सवाल उनकी जीविका के संकट का है

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

उम्मीद के नए रंग

दो आदिवासी महिलाएं जिन्होंने विलुप्ति की कगार पर पहुंची अपनी परंपरागत कला को न सिर्फ जिंदा रखा बल्कि उसे देश-दुनिया में एक पहचान भी दिलाई

शिरीष खरे

उरांव चित्रकला की अकेली महिला चित्रकार
अग्नेश केरकट्टा
अग्नेश केरकट्टा
भोपाल यूं तो झीलों के लिए जाना जाता है लेकिन इसकी एक खास पहचान तरह-तरह के संग्रहालयों की वजह से भी बनती जा रही है. इसी शहर में गए साल और एक संग्रहालय वजूद में आया तो खुद भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी इसे देखने चले आए. असल में यह संग्रहालय कई मायनों में देश भर में है भी अनूठा. नाम है- जनजाति संग्रहालय. जनजाति संग्रहालय को तरह-तरह की जनजातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले कलाकारों ने जैसा गढ़ा है उससे यह और अधिक अनूठा बन गया है. लेकिन इसमें प्रवेश करने से पहले जो बात आपको रोक लेती है वह है इसके मुख्य द्वारा पर बनी लोक आदिवासी चित्रकला के कुछ रूप और रंग. दरअसल यह उरांव जनजाति की चित्रकला के रंग और रुप हैं. इन्हें कुछ समय पहले तक विलुप्त मान लिया गया था. लेकिन खुशी की खबर यह है कि इस चित्रकला की एक बड़ी चित्रकार अब भोपाल में मौजूद हैं. इनका नाम है, अग्नेश केरकट्टा.
अग्नेश केरकट्टा को जानने से पहले यह समझते हैं कि आखिर उरांव चित्रकला अन्य जनजातियों की चित्रकला से इतनी भिन्न क्यों है. दरअसल इस चित्रकला की विशेषता है कि इसमें चित्रों को केवल हाथों और उसमें भी हाथों की अंगुलियों से बनाया जाता है. यानी इन्हें बनाते समय कूची का प्रयोग कतई नहीं किया जाता है. छत्तीसगढ़ के रायगढ़ के कुछ जनजाति बहुल गांवों में प्रचलित रही इस चित्रकला के पीछे जाएं तो पुराने जमाने में उरांव आदिवासी नई फसल के घर आने पर इष्ट देव को धन्यवाद देने के लिए घर की साफ-सफाई करते थे. यह मौका उन्हें साल में एक ही बार मिला करता था. फसल काटकर जब खेतों से खलिहानों तक पहुंचा दी जाती तो घर की महिलाएं थोड़े समय के लिए फुर्सत हो जातीं और इसी खाली समय में वे घर की दीवारों को गोबर से लीप-पोतकर चिकना किया करतीं. उसके बाद उस पर चटख रंगों से तरह-तरह की कृतियां बनातीं. जैसे कि पेड़-पौधे, फल-फूल और पशु-पक्षी इत्यादि. इन रचनाओं में समय के साथ एकरूपता आने लगी और ये उरांव चित्रकला के रूप में विकसित हो गई.
अग्नेश केरकट्टा को कोई 15 बरस पहले तक इन चित्रों का ज्ञान तो था लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि जिस प्रकार से यह चित्रकला विलुप्ति की कगार तक पहुंच चुकी है उस हाल में उसका महत्व क्या है.  अग्नेश उरांव जनजाति की नृत्य कला में भी पारंगत हैं. इस नृत्य विधा में मुख्य तौर पर दो रूप होते है एक तो कर्मा और दूसरा सरहूर. इन दोनों रुपों में निपुण अग्नेश केरकट्टा को जब कला और संस्कृति के क्षेत्रों में काम करने वाले जानकारों से यह पता चला कि जानकारों के बीच आज भी उरांव चित्रकला की काफी पूछ-परख है तो उन्होंने इस कला शैली में अपना हाथ आजमाना शुरू किया. नतीजा यह है कि डेढ़ दशक के बाद आज उनकी मेहनत रंग ला रही है. आज उरांव जनजाति की चित्रकला दुबारा सांस ले रही है.
अग्नेश केरकट्टा के चित्रों का देश के कई शहरों में प्रदर्शन हो चुका है. उनके कई चित्र अब भारत भवन जैसे कई नामी कला भवनों में सार्वजनिक हो चुके हैं. और उससे भी बड़ी बात कि उरांव चित्रकला के बहाने ही सही अग्नेश जैसी जनजाति प्रतिभाओं को भी अब जगह-जगह पर मान और सम्मान मिल रहा है. उनके चित्रों की मांग तेजी से बढ़ रही है.
1972 में जन्मीं अग्नेश  ने अपनी पुरानी पीढ़ी से ही उरांव चित्रकला सीखी है. लिहाजा वे अब इस चित्रकला को आने वाली पीढ़ी तक पहुंचाना चाहती हैं. यही वजह है कि वे सुमंती देवी नाम की एक युवा कलाकार को उरांव चित्रकला के गुर सिखा रही हैं. तीस बरस की सुमंती देवी भी अग्नेश केरकट्टा के साथ ही उनके नृत्य समूह में नाचते और गाते हुए बड़ी तल्लीनता से उरांव चित्रकला को सीख रही हैं. कहने को सुमंती देवी अग्नेश केरकट्टा की कोई सगी बेटी नहीं हैं. लेकिन उरांव जनजाति की यह कला आगे तक जिंदा रहे सो सुमंती देवी अग्नेश केरकट्टा की बेटी बन गई हैं. और अग्नेश सुमंती देवी की मां बन गई हैं.

महिला मजदूर से लोक कला के शिखर तक
भूरी बाई
भूरी बाई
करीब पच्चीस साल पहले जब भूरी बाई नाम की एक भील महिला को मध्य प्रदेश का सबसे बड़ा राजकीय सम्मान  ‘शिखर सम्मान’ मिला तो बहुतों के लिए यह आदिवासी कलाकर एक पहेली की तरह सामने उपस्थित हुई थी. भूरी बाई प्रथम भील आदिवासी चित्रकार के तौर पर जब पूरी दुनिया में शोहरत हासिल करने लगीं तो कला प्रेमियों के मन में एक सहज सवाल यह उठा कि आखिर वे कैसे इस मुकाम तक पहुंचीं.
भूरी बाई आज जिस मुकाम पर हैं वहां तक पहुंचने का सपना भी उन्होंने कभी नहीं देखा था. लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि आपके साथ घटी एक घटना ही आपके पूरे भविष्य की बुनियाद बन जाती है. भूरी बाई के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. यदि उनके जीवन में वह सुखद घटना नहीं घटती तो इतनी महान आदिवासी कलाकार के रूप में हम और आप उनकी कला को कभी नहीं देख पाते.
भूरी बाई की कहानी बड़ी दिलचस्प है. वे अपने पति के साथ मजदूरी की तलाश में जब सैकड़ों मील दूर का फासला तय करके राजधानी भोपाल पहुंचीं तो उन्हें एक बड़े भवन की दीवारों को खड़ा करने के काम में मजदूरी मिली. दरअसल उन दिनों वे देश और दुनिया के कला जगत की एक मजबूत नींव भारत भवन की दीवारों को खड़ा कर रही थीं. उन्हीं दिनों महान कलाकार और भारत भवन की बुनियाद के एक मजबूत स्तंभ स्वर्गीय जे स्वामीनाथन उनके पास आए. वे भूरी बाई से कुछ बातें करने लगे लेकिन हिन्दी न आने के चलते भूरी बाई को उनकी बातें समझ नहीं आईं. तब उनके साथी मजदूरों ने भूरी बाई को समझाया कि दरअसल साहब उनकी चित्रकला के बारे में समझना चाह रहे हैं. स्वामीनाथन को उन्होंने बाबा कहते हुए बताया कि यह चित्रकारी यहां संभव नहीं है. वजह यह है कि इसके लिए जो बहुत सारे रंग चाहिए वे भोपाल में नहीं मिल सकते. उन्होंने बताया कि भील आदिवासी अपने इलाके की खास किस्म की मिट्टी से काला रंग और खास किस्म की पत्तियों से हरा रंग बनाती हैं. उन्होंने बताया कि इसके लिए जो दीवार चाहिए वह भी भोपाल में नहीं मिलेगी. और उससे भी बड़ी बात तो यह है कि इसके लिए जो समय चाहिए वह भी उनके पास नहीं है. वजह यह थी कि तब उन्हें भारत भवन को बनाने के काम में छह रुपये दिन मिला करते थे. लेकिन श्री स्वामीनाथन ने जब जिद की और साथ ही यह भी कहा कि वे उनकी कला का मेहनताना देगें तो भूरी बाई ने उनके लिए कागजों पर भील चित्रकला के कुछ नमूने बनाए. स्वामीनाथन की आंखों में चमक आ गई. उन्होंने भूरी बाई से पूछा कि इस चित्रकला को आप अपनी बोली में बोलते क्या हो? भूरी बाई ने जवाब दिया बाबा यह हम भीलों के लिए पिथोरी चित्रकला है.
भूरी बाई की स्वामीनाथन से हुई यह बातचीत और उनके लिए बनाए गए पिथोरा चित्रकला के नमूनों ने आगे चलकर उन्हें लोक कला संसार में एक नई पहचान दी. वर्तमान में भूरी बाई अपनी कला का प्रदर्शन पूरे देश भर में कर चुकी हैं. उन्होंने भील पिथोरा चित्रकला को दुनिया में एक खास पहचान दिलाने के लिए अमेरिका सहित कई देशों की यात्रा भी की है. उनकी चित्रकला से प्रभावित हुए हर कलाप्रेमी को वे बताना चाहती हैं कि पिथोरा भील आदिवासी समुदाय की एक ऐसी कला-शैली है जिसमें गांव के मुखिया की मौत के बाद उन्हें हमेशा अपने बीच याद रखने के लिए गांव से कुछ कदमों की दूरी पर पत्थर लगाया जाता है. और फिर इस पत्थर पर एक विशेष किस्म का घोड़ा बनाया जाता है. यह विशेष किस्म का घोड़ा ही पिथोरा चित्रकला को खास पहचान देता है. किंतु भीलों में यह विशेष किस्म का घोड़ा बनाने की इजाजत केवल पुरुषों को ही दी जाती है. यही वजह है कि भूरी बाई ने अपनी चित्रकला की शैली में घोड़े की डिजाइन बदल दी है.
दरअसल भील आदिवासी पिथोरा चित्रों को अपने घरों की दीवारों पर बनाते हुए उनके भीतर बहुत ही सुव्यवस्थित तरीके से एक कहानी बुनते हैं. इस प्रकार पिथोरा चित्रकला में कुल चार प्रकार की कहानियां होती हैं. इन कहानियों का संदेश सिर्फ इतना होता है कि वे तीज और त्यौहारों पर अपने पुरखों को याद कर रहे हैं. दरअसल मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में प्रचलित इस पिथोरा चित्रकला के भीतर भीलों की अपनी ही दुनिया है. इसमें उन्हीं की दुनिया का रंग और रूप झलकता है. शहरी लोगों के लिए भले ही वह मनोरंजन का जरिया हो लेकिन आदिवासी तबके के लिए उनकी कला उस प्रकृति के सामने कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है जिससे उनका जीवनभर भरण-पोषण चलता रहता है.

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

नर्मदा क्षिप्रा सियासी जोड़

शिरीष खरे




18 फरवरी , 2014 का दिन और स्थान है इंदौर जिले का उज्जैनी गांव. मध्य प्रदेश में भी यह आगामी लोकसभा चुनाव से ठीक पहले का समय है. तीन घंटे के लिए यह गांव प्रदेश की राजधानी बन गया. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अगुवाई में दोपहर 3 से शाम 6 बजे तक मंत्रिमंडल की बैठक यही हुई. इस दिन नर्मदा-शिप्रा लीन परियोजना से चर्चा में आए उज्जैनी को विकसित करने के लिए मुख्यमंत्री चौहान विशेष रचि ली. इसी दिन यहां चौहान ने जल संकट से घिरे सूबे के पश्चिमी अंचल मालवा को हरा-भरा बनाने का भी सपना दिखाया. उनका दावा है कि मालवा के सैकड़ों गांवों को रेगिस्तान बनने से बचाने के लिए उन्होंने योजना को तेजी से अमली जामा पहनाना शुरू भी कर दिया है.


किंतु हकीकत यह है कि पूरी योजना में ऐसी कई खामियां हैं जिससे अब यह योजना महज चुनावी हथकंडा नजर आने लगी है. देश में बीते कई सालों से नदियों को जोड़ने की परियोजना पर बहस चल रही है. इस मुद्दे पर एक वर्ग का मानना है कि यह विचार न केवल पर्यावरण के विरुद्ध है बल्कि इसमें बड़े पैमाने पर फिजूलखर्ची भी जुड़ी हुई है. वहीं दूसरा तबका इसे जल संकट से निजात पाने के स्थायी उपाय के तौर पर देखता है. लेकिन जब इसी कड़ी में नर्मदा को क्षिप्रा से जोड़ने का मामला सामने आया है तो नदी-जोड़ परियोजनाओं का समर्थन करने वाले कई विशेषज्ञ भी इसके पक्ष में नहीं दिखते.


इस बारे में उनकी साफ राय है कि भौगोलिक नजरिये से नर्मदा को क्षिप्रा से जोड़ना एकदम उल्टी कवायद है. इसमें इस्तेमाल तकनीक ही इतनी खर्चीली साबित होने वाली है कि योजना घाटे का सौदा बन जाएगी. काबिलेगौर है कि मप्र में नर्मदा जहां सतपुड़ा पर्वतमाला की घाटियों में बहने वाली नदी है तो वहीं क्षिप्रा मालवा के पठार पर स्थित है.

 योजना के मुताबिक क्षिप्रा को सदानीरा बनाए रखने के लिए उससे काफी नीचे स्थित नर्मदा के पानी को काफी ऊंचाई पर चढ़ाया और फिर उसे क्षिप्रा में डाला जाता रहेगा. इस ढंग से क्षिप्रा को चौबीस घंटे जिंदा रखने के लिए भारी मात्रा में नर्मदा का पानी डालते रहना अपने आप ही दर्शाता है कि यह योजना कितनी जटिल और खर्चीली है. वहीं विशेषज्ञों का विश्लेषण हमें यह सोचने में मदद करता है कि राज्य सरकार की यह अनोखी तरकीब किस तरह से एक ऐसी नादानी है जो राज्य की जनता के लिए बेहद महंगी साबित होने जा रही है.

यदि इस पूरी योजना के तकनीकी पक्षों पर जाएं तो नर्मदा नदी को क्षिप्रा से जोड़ने के लिए बनाई जाने वाली पचास किलोमीटर लंबी पाइपलाइन इसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है. योजना के तहत नर्मदा के पानी को नर्मदा घाटी से मालवा के पठार तक ले जाने के लिए तकरीबन पांच सौ मीटर यानी आधा किलोमीटर की ऊंचाई तक चढ़ाया जाएगा. तकनीकी विशेषज्ञों के मुताबिक एक नदी के बहाव को इस ऊंचाई तक खींचने के मामले में यह एक बहुत बड़ा फासला है. सीधी बात है कि इतने ऊंचे फासले को पाटने के लिए इस योजना में कई मेगावॉट बिजली इस्तेमाल की जाएगी. इसके लिए चार स्थानों पर न केवल पंपिंग स्टेशन बनाए जाएंगे बल्कि नर्मदा की धारा को अनवरत पठार तक पहुंचाने के लिए इन स्टेशनों को हमेशा चालू हालत में भी रखना पड़ेगा. इस योजना के निर्माण से जुड़े कामों के लिए जिम्मेदार नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के अधिकारी भी इसे काफी खर्चीली कवायद मान रहे हैं. एक अधिकारी  जानकारी देते हैं, ‘ पानी को पठार तक पहुंचाने में कुल 22 रुपये प्रति हजार लीटर का खर्च आएगा. दूसरी तरफ, मप्र के नगर निगमों पर निगाह डाली जाए तो छोटी नदियों या तालाबों से पानी लेकर घरों तक  आपूर्ति की उनकी लागत महज दो रुपये प्रति हजार लीटर होती है.’


इस योजना के अंतर्गत हर दिन तीन लाख 60 हजार घनमीटर पानी नर्मदा से क्षिप्रा में डालकर बहाया जाना है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस पूरी कवायद में रोजाना किस हद तक बिजली फूंकी जाएगी. जानकारों की राय में आगे जाकर बिजली की कीमत बढ़ेगी और इस नजरिये से योजना ठीक नहीं कही जा सकती. वहीं जल क्षेत्र में शोध से जुड़ी संस्था मंथन अध्ययन केंद्र, बड़वानी के रहमत के मुताबिक, ‘क्षिप्रा सहित मालवा की तमाम नदियां यदि सूखीं तो इसलिए कि औद्योगीकरण के नाम पर इस इलाके में जंगलों की सबसे ज्यादा कटाई हुई और उसके चलते नदियों में पानी की आवक कम होती गई. कायदे से मालवा की नदियों को जिंदा करने के लिए उनके जलग्रहण क्षेत्र में सुधार लाने की जरूरत थी. लेकिन इसके उलट अब दूसरे अंचल की नदी का पानी उधार लेकर यहां की नदियों को जीवनदायिनी ठहराने की परिपाटी डाली जा रही है.’

नदी-जोड़ योजना का एक आम सिद्धांत है कि किसी दानदाता नदी का पानी ग्रहणदाता नदी में तभी डाला जा सकता है जब दानदाता नदी में अपने इलाके के लोगों की आवश्यकताओं से ज्यादा पानी उपलब्ध हो. सवाल है कि क्या नर्मदा में पेयजल, खेती और उद्योगों को ध्यान में रखते हुए आवश्यकता से ज्यादा पानी उपलब्ध हैं? गौर करने लायक तथ्य है कि वाशिंगटन डीसी के वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के मुताबिक नर्मदा दुनिया की छह सबसे संकटग्रस्त नदियों में शामिल है. केंद्रीय जल आयोग के मुताबिक 2005 से 2010 तक आते-आते नर्मदा में पानी की आपूर्ति आधी रह गई है. जबकि एक अनुमान के मुताबिक 2026 तक नर्मदा घाटी की आबादी पांच करोड़ हो जाएगी. ऐसे में यहां पानी जैसे संसाधनों पर भारी दबाव पड़ेगा. इस योजना को लेकर जल वैज्ञानिक केजी व्यास का मानना है, ‘नर्मदा का पानी जिस जगह से उठाया जाएगा उसके बारे में यह नहीं बताया गया है कि वहां लोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उससे अधिक पानी उपलब्ध है भी या नहीं.’ इसी तरह, इस नदी-जोड़ योजना में करीब साढ़े चार सौ करोड़ रुपये आधारभूत ढांचा खड़ा करने में खर्च किए जाएंगे.


लिहाजा खर्च के अनुपात में समस्या के निराकरण की तुलना होनी चाहिए. लेकिन यहां भी यह नहीं बताया गया है कि इस लेन-देन में नर्मदा घाटी को कितना घाटा और सूबे को कुल कितना मुनाफा होने वाला है. दरअसल यह पूरी योजना न केवल महंगी बल्कि जटिल भी है, इसलिए इसका संचालन और रखरखाव भी उतना ही खर्चीला रहेगा. ऐसे में जितना खर्च आएगा उससे पड़ने वाले कर का बोझ भी राज्य के लोगों पर पड़ेगा.

नर्मदा नदी को मालवा की जीवनरेखा बनाने की पहल नई नहीं है. किंतु 2002 में सूबे की तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार ने जरूरत से ज्यादा बिजली खर्च होने की दलील देकर ऐसी योजना को खारिज कर दिया था. 2002 को विधानसभा में सिंह ने इस योजना से जुड़े सवालों का जवाब देते हुए कहा था कि इसके लिए पैसा जुटाना बड़ी चुनौती है. लेकिन मौजूदा सरकार ने अब इसी योजना को जनता के बीच आकर्षण का मुद्दा बना दिया है. वहीं अनौपचारिक चर्चा के दौरान प्राधिकरण के एक आला अधिकारी का कहना है, ‘अब तक यह साफ नहीं हो पाया है कि नर्मदा से क्षिप्रा को जोड़ने के नाम पर सैकड़ों करोड़ रुपये की रकम कहां से जुटाई जाएगी.’ दूसरी तरफ, मुख्यमंत्री चौहान का कहना है, ‘मालवा में नर्मदा का पानी लाने के लिए एक लाख करोड़ रुपये भी खर्च करने पड़े तो हंसते-हंसते खर्च किए जाएंगे.’ साथ ही चौहान ने दोनों नदियों के बीच एक भव्य मंदिर बनाने की घोषणा भी की है.


जाहिर है मामला चुनावी है और इस योजना को पीने के पानी के निराकरण के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है, इसलिए राज्य की सरकार जहां किसी भी कीमत पर पीछे हटने को तैयार नहीं है वहीं विरोधी दल कांग्रेस विरोध दिखाने की हालत में नहीं है. नर्मदा-क्षिप्रा योजना पर संभलकर आगे बढ़ने की सलाह देते हुए जल नीतियों पर अध्ययन करने वाली संस्था सैंड्रप, दिल्ली के हिमांशु ठक्कर कहते हैं, ‘पानी से उठने वाले विवादों के हल बाद में ढूंढ़ना काफी मुश्किल हो जाता है. जैसे कि दक्षिण भारत में कावेरी नदी के विवाद के बाद कर्नाटक और तमिलनाडु राज्यों के बीच पनपी पानी की लड़ाई खत्म होने का नाम नहीं लेती. ऐसा इस योजना के साथ भी हो सकता है.’


तजुर्बे बताता है कि भले ही पानी आग ठंडा करने के काम आता हो लेकिन सियासत में यह आग लगाने के काम आ रहा है. लिहाजा मप्र के निमाड़ और मालवा इलाके की नदियों के पानी के साथ ऐसा कोई खेल न खेलने की कोशिश होनी चाहिए थी. लेकिन मप्र में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का नर्मदा को क्षिप्रा से जोड़ने का दावा यहीं नहीं थमता. वे नर्मदा के पानी से मालवा की कई बड़ी नदियों को जोड़ने का राग भी आलाप रहे हैं. इस तरह चौहान इन दिनों नर्मदा के पानी से मालवा के तीन हजार गांवों और दस शहरों की प्यास बुझाने का सपना दिखा रहे हैं. यही नहीं वे नर्मदा के ही पानी से मालवा के 18 लाख हेक्टेयर खेतों को सींचने की उम्मीद भी जगा रहे है. गौर करें तो मालवा में क्षिप्रा के अलावा खान, गंभीर, चंबल, कालीसिंध और पार्वती सरीखी बड़ी नदियां हैं. जाहिर है कि अकेले नर्मदा नदी के दम पर सभी नदियों को जिंदा रखने का दावा किया जा रहा है. इस पूरी परियोजना से जुड़ा सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस कवायद में जब नर्मदा सूख जाएगी तब उसे कौन-सी नदी से जिंदा किया जाएगा.